वीरांगना श्यामा बाई तंवर की समाधी सन 1680-85 के दौरान दिल्ली के बादशाह ओरंगजेब मालवा से होते हुवे गुजरात जाते समय सांवेर नगर उस समय के सगाना में खान नदी के किनारे अपने लाव-लश्कर के साथ विश्राम किया । तब उन्होंने सांवेर के तात्कालिक जागीरदार को अपने आने का सन्देश भिजवाया । जागीरदार अपने सैनिको के साथ बादशाह की अगवानी के लिए तोहफे लेकर पहुंचे तथा बादशाह का इस्तकबाल कर अगवानी की । बादशाह द्वारा जागीरदार को उनकी बेटी (पुत्री) का निकाह उनके साथ करने को कहा तथा कुछ सैनिको के साथ डोला जागीरदार के बड़ा रावला महल में भेजा । जागीरदार श्री तंवर की मनोदशा बड़ी विचित्र थी की वे क्या करे एक तरफ उनकी लाडली बेटी श्यामा और दूसरी और बादशाह का आदेश, अगर आदेश का पालन नहीं करे तो उनकी रियाया (जनता) के साथ उक्त अत्याचारी बादशाह क्या जुल्म करेगा यह सोचकर जागीरदार परेशान थे । उनकी परेशानी की जानकारी उनकी पुत्री श्यामा को मिली तो उन्होंने अपने पिता की परेशानी को दूर करने के लिए बादशाह के भेजे डोले के साथ जाने की इच्छा जताई, पिता ने भारी मन से अपनी पुत्री का डोला बादशाह के पास रवाना किया । लेकिन श्यामा के मन मे
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सांवेर के भुट्टे भुट्टे के बिना सांवेर का इतिहास अधुरा लगता है । क्या कहना यंहा के भुट्टे का , सांवेर बायपास रोड के दोनों किनारों पर लगी दुकाने , गरमा-गरम धधकते अंगारों पर पकते स्वादिष्ट भुट्टो का जायका लिए बिना यंहा से कोई नहीं गुजरता । संत, नेता, अभिनेता, अफसर, उद्योगपति, समाजसेवी, कावड़यात्री व् अन्य कोई भी व्यक्ति हो यंहा के भुट्टे का स्वाद लिए बिना आगे नहीं बढता । 365 दिन यंहा भुट्टे का मेला लगा रहता है । कई मुसाफिर तो यंहा तक कहते है कि आप सांवेर से गुजरे और भुट्टे नहीं खाए तो समझो आपकी यात्रा अधूरी है । कई श्रद्धालु तो यंहा से कच्चे भुट्टे लेकर जाते है, और महाकाल को चढाते है ।बारिश के मौसम में तो भुट्टो के दीवानों की यंहा भीड़ रहती है, कई लोग भींगते भी है साथ में भुट्टे का मजा भी लेना नहीं भूलते ।
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