काशी विश्वनाथ मंदिर धरमपुरी

सांवेर से 15 कि.मी. दूर इंदौर मार्ग पर धरमपुरी के निकट मंगल धार्मिक ट्रस्ट इंदौर के रमेश मंगल द्वारा 16 अप्रैल 2000 को निर्मित सुन्दर एवं विशाल मंदिर में भगवान काशी विश्वनाथ का आकर्षक शिवलिंग स्थापित किया गया। जिसके दर्शनार्थ बड़ी संख्या में श्रद्धालु आकर पुण्य अर्जित करते है। मंदिर के आचार्य पं. गोपाल शास्त्री के सानिध्य में प्रतिवर्ष श्रावण मास में विशेष धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न होते है। समीप ही महामंडलेश्वर स्वामी बालकृष्ण यति जी कि प्रेरणा से भारतीय संस्कृति शिक्षण संस्थान स्थापित किया गया है। भगवान काशी विश्वनाथ मंदिर और समीप के मैदान पर यति जी महाराज की सद्प्रेरणा से इस क्षेत्र में सदी का विरला धार्मिक अनुष्ठान "कोटि रूद्र महायाग' निर्विघ्न सम्पन्न हुआ जिसकी लाखो जोड़ी आंखे साक्षी रही । इस महायाग के अनुष्ठान की सफलता और शुभ फल प्राप्ति के लिए महामंडलेश्वर वेदान्ताचार्य स्वामी बालकृष्ण यतिजी द्वारा शास्त्र के विशेष नियमो व् आज्ञा का पालन करवाया गया। यज्ञ के बारे में कहा जाता है कि यज्ञ से प्रकृति को उर्जा मिलती है। मानव शरीर पृथ्वी, जल, आग वायु, आकाश इन पंच तत्वों से मिलकर बना है। इस प्रकार हमारा शरीर संम्पूर्ण प्रकृति पर अधीन है। प्रकृति देव के अधीन है, देव मंत्रो के अधीन है और मन्त्र ब्राहमण अधीन है यही स्रष्टि क्रम है। शास्त्र विधि को छोड़कर कोई कार्य सिद्ध नहीं होता न सिद्धि प्राप्त होती है न सुख मिलता है और न ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।यज्ञ परमात्मा एवं प्रकृति की सेवा-आराधना का ही स्वरूप है। इस संपूर्ण अतिरुद्र कोटि महायज्ञ में आस्था हिलोरे ले रही थी। मंत्रोचार की ध्वनी और यज्ञशाला की धुन आत्मिक शांति प्रदान कर रही थी। मन ही मन ईश्वर का मनन हो रहा था। आस्था का एक ऐसा माहोल तैयार हो चूका था की हर व्यक्ति भक्ति में ही खोया नजर आ रहा था। यज्ञ में पड़ने वाली आहुतियो से आयोजन की खुशबु दूर-दूर तक पहुंची। देश भर से भक्त यंहा पहुंचे और कुछ विदेशी भी आत्मिक शांति पाते नजर आये।

"शिव और रुद्र ब्रह्म के ही पर्याय हैं। शिव ही वेद हैं और वेद ही शिव हैं। वेद को परमात्मा की श्वांस भी कहा गया है। रुद्र पाठ करते हुए ब्राह्मणों की परिक्रमा करना पृथ्वी की परिक्रमा के समकक्ष माना गया है। वेद मंत्रों द्वारा ईश्वर की पूजा-अभिषेक, यज्ञ और जप-तप के अनुष्ठान विज्ञान सम्मत हैं"

उक्त प्रेरक विचार
महामंडलेश्वर स्वामी बालकृष्णयतिजी ने कोटिरुद्र महायज्ञ में व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति में वेद की अनुपम महिमा है।

बनारस के यज्ञाचार्य पं. लक्ष्मीकांत दीक्षित ने कहा कि "जो धन पुरुषार्थ से अर्जित होता है उसका कुछ अंश यदि यज्ञ, जप-तप आदि धार्मिक अनुष्ठानों में लगा दिया जाए तो वह धन धन्य हो जाता है। धनार्जन जीवन की अनिवार्यता है लेकिन उस धन का कुछ हिस्सा धर्म में लगाना भी शास्त्रों में पुण्य माना गया है। उन्होंने कहा कि मर्यादा के बदले अपयश तथा द्रव्य के बदले दरिद्रता और प्रसन्नता के बजाय अनिष्ट जैसे अकल्याणकारी परिणाम धर्म एवं संस्कृति से विमुखता के कारण ही मिलते हैं, अन्यथा भगवान शिव कभी किसी धर्मनिष्ठ का अकल्याण कर ही नहीं सकते। यज्ञ, दान, तप और जप जैसे अनुष्ठान भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान हैं"

"न भूतो न भविष्यति "
आचार्य पं. गोपाल शास्त्री के अनुसार "ये शास्त्रों के अनुरूप अनुष्ठान किया जा रहा है। अनुष्ठान भगवान शिव को समर्पित है। इस प्रकार का अनुष्ठान होना अविस्मरणीय है। शायद ही ऐसा अनुष्ठान भविष्य में सुनने को मिलेगा"

जुना पीठाधीश्वर आचार्य महा मंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी जी अनुसार "ये रूद्रकोटि महायज्ञ का दुर्लभ अनुष्ठान शिवस्वरूप है। भगवान सत्पुरुषो के संकल्पों को पूरा करता है। ऐसे आयोजन से मैं अभिभूत हूँ। इससे धर्मं और संस्कृति मजबूत होगी और मानसिक विकृतिया भी दूर होगी"

इस महाआयोजन की विशेष रिपोर्ट पत्रकार राजेंद्र सोनी द्वारा दैनिक भास्कर में प्रकाशित की गई थी। प्रस्तुत है -

अतिरुद्र कोटि महायज्ञ , आयोजन स्थल धरमपुरी सांवेर , कुल एरिया 35 एकड़ जिसमे यज्ञशाला, प्रवचन पंडाल, भोजन शाला, संत निवास, ब्राह्मणों के लिए अलग से भोजन शाला, मेला, स्वास्थ सुविधा, वाहन पार्किंग, भंडार गृह, रसोई घर, पुलिस सहायता केंद्र आदि बनाये गए।

आयोजन :- 6 दिसंबर 2009 को अभिषेकात्मक रूद्रपाठ शुरू हुआ। 31 दिसंबर 2009 को रूद्रपाठ की पूर्णाहुति हुई। इसी दिन चन्द्र ग्रहण पर अनिष्ठ निवारण प्रयोग किया गया। 1 जनवरी 2010 को जल कलश शोभायात्रा निकाली गयी, इस दिन से महायज्ञ शुरू हुआ। रास लीला भी शुरू हुई। इसका समापन 10 जनवरी 2010 को हुआ। 9 जनवरी 2010 को रासलीला में श्रीकृष्ण -रुक्मणि विवाह का मंचन हुआ। 2 जनवरी 2010 से राजकोट की मीराबेन द्वारा श्रीमद भागवत कथा प्रस्तुत की गई जिसका समापन 8 जनवरी 2010 को हुआ। 9 और 10 जनवरी 2010 को कलाकार पंकज और पूजा द्वारा भरत नाट्यम, तांडव नृत्य प्रस्तुत किये गए।

यज्ञशाला पर एक नजर - कुल 25 कुंड जिनमे प्रतिदिन 25 यजमान ने गोग्रथ की आहुति तथा 100 यजमान सपत्निक शाकल्य की आहुति देते थे। 6 दिसंबर 2009 से महायाग शुरू हुआ जिसमें 31 दिसंबर 2009 तक अभिषेकात्मक अतिरूद्र महायज्ञ हुआ। यज्ञाचार्य पं. लक्ष्मीकांत दीक्षित के मार्गदर्शन में 330 विद्वानों ने 31 दिसंबर 2010 तक 3 करोड़ रूद्र पाठ किये। 1 जनवरी से 10 जनवरी 2010 तक यज्ञशाला में आहुतियाँ दी गई। प्रतिदिन 190 विद्वानों द्वारा यज्ञ कराये गए। 11 पार्थिव शिवलिंग रोज बनाकर दुग्धाभिषेक किया गया। आचार्य गोपाल शास्त्री के मार्गदर्शन में 11 विद्वान् मंदिर में रूद्र पाठ कर काशी विश्वनाथ का दुग्धाभिषेक करते थे। मुख्य यज्ञाचार्य पं. लक्ष्मीकांत दीक्षित और उनके सहायक 11 विद्वान् यज्ञ में सहयोग करते थे। इसके आलावा चार वेदों के विद्वान् , 18 पुराण और 4 सहपुरान के आलावा इक धर्मशास्त्र, दुर्गा सप्तशती, श्री गणेश अर्थवशीर्ष, श्रीराम रक्षा स्त्रोत, हनुमान चालीसा का भी पाठ हुआ। स्फटिक के शिवलिंग का भी प्रतिदिन अभिषेक होता था।

शामिल हुए महामंडलेश्वर :- सवा माह चले इस महायाग में 15 महामंडलेश्वर एवं संत शामिल हुए इसमें महामंडलेश्वर स्वामी अर्जुनपूरी जी महाराज ,महामंडलेश्वर स्वामी प्रकाशनन्द जी महाराज ,महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंदजी महाराज, महामंडलेश्वर स्वामी आत्मप्रकाशजी महाराज, महामंडलेश्वर स्वामी ज्योर्तिमयानंद जी महाराज, महामंडलेश्वर स्वामी आनंद चैतन्य जी महाराज, महामंडलेश्वर स्वामी प्रेमानन्दजी महाराज, महामंडलेश्वर स्वामी प्रखरजी महाराज, महामंडलेश्वर स्वामी भवानीनंदनजी महाराज, महामंडलेश्वर स्वामी परेशनंदनजी महाराज के अलावा स्वामी मोहनानंदजी महाराज, स्वामी चेतनदासजी महाराज, स्वामी अण्णा महाराज, पं. कमलकिशोरजी नागर आदि प्रमुख रूप से शामिल हुए थे।

11 जनवरी 2010 को सुबह अभिजित मुहूर्त में 11.45 से 12.15 के बिच पूर्णाहुति हुई इसके बाद महाआरती एवं भंडारा हुआ जिसमे डेढ़ लाख से अभी अधिक श्रद्धालु आये थे। मंदिर में बनने वाले संत निवास और प्रवचन पंडाल का भूमिपूजन हुआ। शाम पांच बजे से साढ़े सात बजे तक महामंडलेश्वर बालकृष्ण यतिजी का जन्मोत्सव मनाया गया। इसमें महामंडलेश्वरो और नारायण यज्ञ समिति के सदस्यों द्वारा पाद पूजन कर अभिनन्दन किया गया। 12 जनवरी 2010 को अविभ्रत प्रयोग ओंकारेश्वर में हुआ। इसमें वरिष्ठ यज्ञाचार्य पं. लक्ष्मीकांत दीक्षित के अलावा कई विद्वान् और यजमान भी शामिल हुए एवं माँ नर्मदा की पूजा-अर्चना की।

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